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भाग ७ सत्ता के भाग अन्तरात्मा (चैत्य)
अन्तरात्मा वह है जो भगवान् को कभी भी छोड़े बिना उनके बाहर आती है और अभिव्यक्ति को कभी भी समाप्त किये बिना 'उनके अन्दर' वापिस चली जाती है ।
अन्तरात्मा भगवान् है जिसने भगवान् होना छोड़े बिना व्यक्तिरूप धारण किया है । अन्तरात्मा के अन्दर व्यक्ति और भगवान् शाश्वत काल से एक हैं ।
अत: अपनी अन्तरात्मा को पाने का अर्थ है भगवान् के साथ एक होना ।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि अन्तरात्मा की भूमिका है मनुष्य को सच्ची सत्ता बनाना ।
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मतों और सम्प्रदायों के अनुसार सिद्धान्त बदलते हैं और हर एक अपनी मान्यताओं के समर्थन में उत्तम-उत्तम कारणों को सामने रखता है ।
निश्चय ही मनुष्य जो दावे करता है उनमें सत्य होता है और हर एक न केवल सम्भव है बल्कि पृथ्वी के इतिहास में उसका अस्तित्व रह चुका है ।
मैं केवल अपने निजी अनुभव की बात कह सकती हूं : अन्तरात्मा भगवान् है, 'परम प्रभु' का शाश्वत अंश है, इसलिए वह अपने से भिन्न किसी भी नियम से सीमित या बद्ध नहीं हो सकती ।
भगवान् ने इन अन्तरात्माओं को जगत् में अपना कार्य करने के लिए प्रकट किया और इनमें से हर एक पृथ्वी पर विशेष प्रयोजन, विशेष काम और विशेष नियति को लेकर आती है । वह अपने अन्दर अपना धर्म लिये रहती है जो केवल उसके अपने लिए अनिवार्य होता है और वह सामान्य धर्म नहीं बन सकता ।
अत: स्पष्ट है कि सम्भवन की शाश्वतता में किसी भी कल्पनीय या अकल्पनीय चीज का अस्तित्व होता है ।
३६१ अन्तरात्मा शाश्वत और सार्वभौम है, और उसके लिए इन सब अक्षमताओं और असम्भावनाओं में कोई सत्य नहीं है ।
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जब तुम किसी की अन्तरात्मा से बात करते हो, तो तुम हमेशा उसी एक अन्तरात्मा से बोलते हो चाहे शरीर, जाति और संस्कृति में कितना भी भेद क्यों न हो । २३ सितम्बर, १९४१
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अन्तरात्मा भगवान् को सोच नहीं सकती लेकिन 'उन्हें' निश्चिति के साथ जानती है । २६ दिसम्बर, १९५४
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तुम्हारी अन्तरात्मा दिव्य प्रकाश में ऐसे खिलती है जैसे कोई फूल सूरज के आगे खुलता है । ३० मई, १९५६
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मैं अपनी अन्तरात्मा की प्रगति कैसे करवा सकता हूं ?
अपनी अन्तरात्मा पर कोई क्रिया करने से पहले तुम्हें उसके बारे में सचेतन होना चाहिये । और जब तुम अपनी अन्तरात्मा के बारे में सचेतन हो जाओगे तो शायद यह देखोगे कि तुम अपनी अन्तरात्मा की प्रगति करवाओ इसके बदले तुम्हारी अन्तरात्मा ही तुम्हें प्रगति करने में सहायता देगी । २३ अगस्त, १९६४
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अन्तरात्मा क्या है और वह हमारे अन्दर किम रूप में रहती है ?
३६२ अन्तरात्मा का पहला रूप है भगवान् के प्रकाश की एक चिंगारी ।
विकास द्वारा वह व्यक्तिगत सत्ता बन सकती है और तब वह चाहे जो रूप ले सकती है । अगस्त, १९६६
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मन, जीवन और शरीर को वह होना और जीना चाहिये जो 'अन्तरात्मा' जानती है और वह है ।
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जब किसी की अन्तरात्मा जाग्रत् हो तो उससे छुटकारा पाना आसान नहीं होता; तो ज्यादा अच्छा यह है कि उसके आदेशों का पालन किया जाये ।
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अपनी अन्तरात्मा का आदेश मानो, केवल उसे ही तुम्हारे जीवन पर शासन करने का अधिकार है ।
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चैत्य केन्द्र : ज्योतिर्मय और शान्त-स्थिर, उसे मानव सत्ता पर शासन करने के लिए ही बनाया गया है ।
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चैत्य अपनी अभिव्यक्ति खुलकर तभी कर पाता है जब वह सारी सत्ता पर शासन करता है ।
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चैत्य शक्ति प्रकृति की गतिविधियों को आयोजित करती है ताकि वे प्रगति कर सकें ।
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३६३ चैत्य-प्रभाव तले सभी गतिविधियां सन्तुलित हो जाती हैं ।
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चैत्य प्रभाव भौतिक को भगवान् के प्रति मुड़ने के लिए बाधित करता है ।
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वर दे कि यह घर चैत्य का प्रतीक हो, शाश्वत भागवत 'उपस्थिति' का मन्दिर ।
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चैत्य केन्द्र की चेतना में निवास करो; इस भांति तुम्हारी इच्छा केवल परम प्रभु के 'संकल्प' को व्यक्त करेगी और तब तुम्हारी रूपान्तरित सत्ता 'भागवत प्रेम ' को ग्रहण करने और अभिव्यक्त करने के योग्य होगी । २५ सितम्बर, १९३४
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मानव सत्ता का केन्द्र है चैत्य जो अन्तरस्थ भगवान् का निवास-स्थान है । एकीकरण का अर्थ है इस केन्द्र के चारों तरफ सत्ता के सभी भागों (मानसिक, प्राणिक और भौतिक) की व्यवस्थित अवस्थिति और उनमें सामञ्जस्य जिससे सत्ता की सभी गतिविधियां भागवत उपस्थिति की इच्छा की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति हों ।
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जब तक कि सम्पूर्ण व्यक्तिगत चेतना केन्द्रीय 'भागवत उपस्थिति' के चारों तरफ व्यवस्थित न हो जाये तब तक क्रियाएं अस्थायी होती हैं यद्यपि वे बार-बार आती रहती हैं, और हम उनसे स्थायी होने की आशा नहीं कर सकते ।
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३६४ पार्थिव सत्ता में चैत्य के अतिरिक्त कुछ भी स्थायी नहीं है ।
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(किसी साधक ने लिखा कि साधना के प्रकाशपूर्ण और आनन्दमय दिनों के बाद अन्धकार के अन्तराल बार- बार लौट आते हैं ।)
यह इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारी सम्पूर्ण सत्ता केन्द्रीय चैत्य 'उपस्थिति' के चारों तरफ एकत्र नहीं है ।
यह एक व्यक्तिगत कार्य है जिसे हर व्यक्ति को अपने-आप करना चाहिये । सहायता हमेशा होती है लेकिन उसकी क्रिया का प्रभाव ग्रहणशीलता और सचेतन पुकार के अनुपात में होता है ।
आखिर यह प्रयास में धैर्य का प्रश्न है ।
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मानव सत्ता बहुत-से भिन्न-भिन्न भागों से बनी है और उन सभी भागों को सामञ्जस्य में लाने और एक करने के लिए समय और सचेतन प्रयास की आवश्यकता होती हे । जब तुमने समर्पण किया तो तुम्हारी सम्पूर्ण सत्ता ने समर्पण नहीं किया । धीरे-धीरे कोई दूसरा भाग सतह पर आ गया जिसने समर्पण नहीं किया था और तुम्हारे समर्पण की खुशी गायब हो गयी और उसके स्थान पर नीरसता और उदासीनता आ गयी । लेकिन कुछ समय बाद यह भाग भी परिवर्तित हो जाता है और इस तरह सुखी अवस्था फिर से आ जाती है । २६ जून, १९४१
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तुम्हारा पत्र अभी- अभी मिला है जो तुम्हारी समस्या लेकर आया है । वैसे यह सभी मनुष्यों के जीवन की समस्या है, विशेष रूप से जब वे आन्तरिक विकास की अमुक अवस्था तक पहुंच चुके हों लेकिन अभी तक अपनी सचेतन अन्तरात्मा के चारों तरफ अपनी सत्ता के एकीकरण द्वारा आध्यात्मिक मुक्ति के शिखर तक न पहुंचे हों । क्योंकि एकीकरण का
३६५ अभाव ही सारी समस्याओं का कारण है । सत्ता एक भाग एक ओर खींचता है दूसरा दूसरी ओर, कभी पहला ज्यादा बलवान् होता है और वह जीवन को अमुक मोड़ दे देता है, और कभी दूसरा और तब वह मोड़ अचानक बदल जाता है और इसका परिणाम होता है असंगति । और चूंकि बहुधा असन्तुष्ट भाग अपनी सन्तुष्टि के अभाव को प्रकट करने के लिए सतह पर आता है तो जब तक आदमी महात्मा न हो, वह जो भी जीवन जीता है उससे कभी सन्तुष्ट नहीं होता और हमेशा उस जीवन से वंचित रह जाता है जिसे वह जी सकता था--चाहे वह एक दिशा में हो या दूसरी ।
तुम्हारे मामले में कुछ और भी है । क्योंकि तुम्हारी अन्तरात्मा मेरी सत्ता से बहुत अधिक जुड़ी रहती है और जैसे-जैसे अतिमानसिक चेतना के साथ सम्पर्क अधिकाधिक पूर्ण और निरन्तर होता जा रहा है वैसे-वैसे वह तुम्हारी अन्तरात्मा पर बहुत जोरों से, करीब-करीब दुर्निवार आकर्षण की तरह कार्य करता है । १९५८ में यही हुआ था ।
और अन्त में, ''आसान और सुखद जीवन'' केवल बाहरी सत्ता को सन्तुष्ट कर सकता है; लेकिन भौतिक सत्ता में जो चीज अन्तरात्मा के प्रभाव का उत्तर देती है उसे अपने खिलने के लिए एक ऐसे जीवन की आवश्यकता होती है जो अन्तरात्मा की आवश्यकताओं के अधिक अनुरूप हो और जब उसे वह न मिले तो वह ''मुरझाने'' लगती है । ३ दिसम्बर, १९५९
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ऐसा इसलिए है चूंकि व्यक्ति एक ही टुकड़े का बना नहीं है, बल्कि बहुत-सी विभिन्न सत्ताओं से बना है, जो कभी-कभी एक-दूसरे का विरोध तक करती हैं; कुछ आध्यात्मिक जीवन चाहती हैं, और कुछ इस दुनिया की चीजों से चिपकी रहती हैं । इन सभी भागों को सामञ्जस्य में लाना और एक करना लम्बा और कठिन काम है ।
सबसे अधिक विकसित भागों द्वारा प्राप्त शक्ति और प्रकाश आत्मसात् करने की प्रक्रिया द्वारा बाकी सत्ता में धीरे-धीरे फैल जाते हैं, और आत्मसात् की इस अवधि में जो भाग सामने होते हैं उनकी प्रगति रुकी-सी मालूम
३६६ होती है । इसी के बारे में श्रीअरविन्द कह रहे थे । २९ अक्तूबर, १९६०
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वास्तव में, तुम्हारे सभी विभिन्न भाग अपनी- अपनी युक्ति में ठीक हैं, और बुद्धिमानी यही है कि चेतना में पर्याप्त गहरे उतरो जिससे कि तुम यह जान सको वे किस स्थान पर मिलते और सहमत होते हैं, परस्पर विरोध करने की जगह कहां एक-दूसरे को पूरा करते हैं ।
ठीक-ठीक काम के लिए, कठोर सिद्धान्तों के द्वारा पैदा की गयी कठिनाइयों की अपेक्षा साधारणत: सहज और सामञ्जस्यपूर्ण ढंग से काम करना ज्यादा अच्छा होता है, लेकिन यह भी सम्पूर्ण नहीं है--हर अवसर पर आन्तरिक नीरवता में ऊपर का पथ-प्रदर्शन ग्रहण करना आदर्श अवस्था है ।
निरन्तर अभ्यास और सद्भावना से ऐसा करना सम्भव हो जाता है ।
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केवल चैत्य प्रेरणा ही सच्ची है । वह सब जो प्राण और मन से आता है, अहं के साथ मिला-जुला और मनमाना होता ही होता है । व्यक्ति को बाहरी सम्पर्क से होने वाली प्रतिक्रिया के रूप में नहीं बल्कि प्रेम और सद्भावना की अटल अन्तर्दृष्टि के साथ कार्य करना चाहिये । बाकी सब कुछ मिश्रण होता है जो केवल भ्रमात्मक और मिश्रित परिणाम ला सकता है और अव्यवस्था को स्थायी बनाता है । मार्च १९६१
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वह चैत्य सत्ता नहीं होती जो निजी कारणों के लिए कष्ट पाती है, कष्ट पाते हैं मन, प्राण और अज्ञानी मनुष्य की साधारण चेतना । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बाहरी चेतना और चैत्य चेतना के बीच का सम्पर्क अच्छी तरह से स्थापित नहीं हुआ होता । वह, जिसमें यह सम्पर्क भली- भांति स्थापित हो चुका हो, हमेशा प्रसन्न रहता है ।
३६७ चैत्य सत्ता ऐक्य को सम्पन्न करने के लिए अध्यवसाय और लगन के साथ काम करती है लेकिन वह कभी शिकायत नहीं करती और यह जानती है कि उपलब्धि के मुहूर्त के आने की प्रतीक्षा कैसे की जाये ।
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अपने- आप में बाहरी सत्ता बहुत उत्तरदायी नहीं होती, वह अधिकतर 'प्रकृति' की शक्तियों का खिलौना होती है । लेकिन आन्तरिक या उच्चतर सत्ता, गभीरतर चेतना हमारी नियति की अधिष्ठात्री और निर्मात्री होती है । इसीलिए इस परम चेतना को खोजना और इसके साथ जुड़ना इतना महत्त्वपूर्ण है जिससे कि जीवन की सभी असंगतियों और 'प्रकृति' के सभी द्वंद्वों का अन्त हो जाये । १७ मार्च, १९६८
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चैत्य को पाने के लिए तुम्हें प्राण की कामनाओं पर विजय पानी होगी और मन को शान्त, निश्चल-नीरव करना होगा, उसके बाद भगवान् के प्रति निष्कपट निवेदन करना होगा । चैत्य मनुष्य में उन्हीं का यन्त्र है ।
चैत्य के साथ आन्तरिक सम्पर्क ठोस और निर्विवाद तथ्य है जो सभी सच्ची चेतनाओं पर अपना प्रभाव आरोपित करता है । ५ अप्रैल, १९७२
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चैत्य हमेशा उपस्थित है, और वह शक्तिशाली है । कमजोर तो ग्रहणशीलता है । १ मई, १९७२
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अहं के शासन से छुटकारा पाने के लिए सबसे अच्छा उपाय है चैत्य सत्ता को पाना, जो मनुष्यों में भगवान् का यन्त्र है ।
अपने अन्दर गहरे जाओ (अर्थात् हृदय-प्रदेश में) और सतत अभीप्सा
३६८ करो । चैत्य का सच्चा मिलन अचूक है । ८ मई, १९७२
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यह अनिवार्य है कि हर एक अपने चैत्य को पाये और उसके साथ पक्की तरह से एक हो जाये । चैत्य द्वारा ही अतिमानस अपने- आपको अभिव्यक्त करेगा । २४ जून, १९७२
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मेरे अन्दर यह अन्धकारमय और जड़मति व्यक्तित्व क्यों है ? क्या यह सभी में छिपा रहता है या केवल मैं ही एक कठिन नमूना हूं ?
निश्चय ही तुम एक अकेले नहीं हो । ऐसे बहुत-से हैं । जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण सत्ता को चैत्य के सचेतन शासन के चारों और केन्द्रित कर लिया है केवल वे ही इससे अपने- आपको मुक्त कर सकते हैं । जुलाई, १९७२
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जब आन्तरिक अवस्था अगले कदम के लिए तैयार होगी तो आप उसका पथ-प्रदर्शन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जिस भी रूप में चाहें, करेगी ।
अगला कदम है अपनी चैत्य सत्ता को पाना और उसके साथ एक होना । १० अगस्त, १९७२
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मानव सत्ता विभिन्न भागों से बनी है जो कभी-कभी स्पष्ट रूप से अलग-अलग होते हैं । वे केवल चैत्य प्रभाव और क्रिया द्वारा एक हो सकते हैं । अपने उद्यम में डटी रहो और तुम निश्चित रूप से सफल होओगी ।
आशीर्वाद । ५ अक्तूबर, १९७२ *
३६९ तुम जिसे खोजते हो वह हमेशा तुम्हारे लिए तैयार है । चैत्य घुमाव को पूरा होने दो और वह स्वयं तुम्हें उस तक ले जायेगा जिसकी तुम अभीप्सा करते हो ।
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चैत्य कभी भी अवसन्न नहीं होता । २१ मार्च, १९३४
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मैं कहती हूं कि चैत्य अवसाद को नहीं जानता क्योंकि उसका स्वभाव दिव्य है और भगवान् के अन्दर कोई अवसाद नहीं है ।
चैत्य खेद के साथ सत्ता के दूसरे भागों की बेवकूफी देख सकता है, लेकिन उसका अपना स्वभाव ऐसा है कि उसके लिये अवसन्न होना असम्भव है | २२ मार्च, १९३४
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स्थायी सुख का मूल है चैत्य में ।
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चैत्य पवित्रता : चैत्य की स्वाभाविक अवस्था ।
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अपने स्वभाव से ही चैत्य शान्त-स्थिर है ।
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चैत्य शान्ति : यह सहज होती है और किसी कठिनाई को नहीं जानती । *
३७० चैत्य प्रार्थना : सहज और उत्कट ।
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चैत्य निवेदन : भगवान् के सम्बन्ध में चैत्य की यह सहज वृत्ति है ।
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चैत्य उदारता देने के आनन्द के लिए देती है ।
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चैत्य पूर्णता का अर्थ है सब चीजों पर मुस्कुराना ।
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